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आखिर क्यों सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि SC/ST पर अत्याचार अतीत की बात नहीं? जानें क्या है पूरा मामला

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नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) ने शुक्रवार को कहा कि अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों पर अत्याचार अतीत की बात नहीं है और इसलिए इनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के उपायों के रूप में संसद द्वारा बनाये गये कानून के प्रावधानों का सतर्कतापूर्वक अनुपालन किया जाना चाहिए.

उच्चतम न्यायालय ने राजस्थान उच्च न्यायालय के एक आदेश को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की. इस आदेश में हत्या के एक मामले में एक आरोपी को जमानत दी गई थी. मामले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत दंडनीय अपराधों को भी जोड़ा गया था.

सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया नोटिस
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की पीठ ने कहा कि मामले में एससी/एसटी अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन था और उच्च न्यायालय ने जमानत याचिका पर विचार करते हुए शिकायतकर्ता को कानून की धारा 15 ए के प्रावधानों के तहत नोटिस जारी नहीं किया था.

पीठ ने अपने फैसले में कहा, ‘अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के खिलाफ अत्याचार अतीत की बात नहीं है. यह आज भी हमारे समाज में एक वास्तविकता बनी हुई है. इसलिए इनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के उपायों के रूप में संसद द्वारा बनाये गये कानून के प्रावधानों का सतर्कतापूर्वक अनुपालन किया जाना चाहिए और ईमानदारी से लागू किया जाना चाहिए.’

अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 15ए पीड़ितों और गवाहों के अधिकारों से संबंधित है और इसकी उप-धाराएं (3) और (5) विशेष रूप से पीड़ित या उनके आश्रित को आपराधिक कार्रवाई में एक सक्रिय हितधारक बनाती है.

हितों को पूरा करने के लिए अधिनियम बनाया गया है
पीठ ने कहा, ‘वर्तमान मामले में धारा 15ए की उप-धारा (3) और (5) में निहित वैधानिक आवश्यकताओं का स्पष्ट उल्लंघन हुआ है.’ पीठ ने कहा कि अधिनियम की धारा 15ए में महत्वपूर्ण प्रावधान हैं जो जाति-आधारित अत्याचारों के पीड़ितों और गवाहों के अधिकारों की रक्षा करते हैं. पीठ ने कहा कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के संवैधानिक अधिकारों की पूर्ति के हित में सार्वजनिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए संसद द्वारा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम बनाया गया है.

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जाति-आधारित अत्याचारों के कई अपराधी खराब जांच और अभियोजन की लापरवाही के कारण मुक्त हो जाते हैं और इसके परिणामस्वरूप एससी / एसटी अधिनियम के तहत सजा की दर कम होती है, जिससे इस गलत धारणा को बल मिलता है कि दर्ज मामले झूठे हैं और इसका दुरूपयोग हो रहा है.

पीठ ने कहा, ‘मौजूदा मामले में, यह स्पष्ट है कि नोटिस और सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया गया है.’ पीठ ने कहा कि जमानत देने के उच्च न्यायालय के आदेश में कोई तर्क नहीं है और ऐसे आदेश पारित नहीं हो सकते. उच्चतम न्यायालय ने 2018 में दर्ज प्राथमिकी के आधार पर अपने छोटे भाई की हत्या के संबंध में पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराने वाले व्यक्ति द्वारा दायर अपील की अनुमति देते हुए कहा कि आरोपी को सात नवंबर या उससे पहले आत्मसमर्पण करना होगा.

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