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Chehre Review: ‘चेहरे’ के पीछे है फ्रेडरिक ड्यूरेनमैट का उपन्यास- ‘अ डेंजरस गेम’

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सिनेमेटोग्राफर बिनोद प्रधान, एडिटर बोधादित्य बनर्जी, कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा। इन तीन नामों के दम पर ही फिल्म चर्चा में लायी जा सकती है. फिर आप उसमें अमिताभ बच्चन, रघुवीर यादव, अनु कपूर, इमरान हाशमी मिला लीजिये. फिल्म की चर्चा होने की गारंटी पक्की. अब इस फिल्म में मीडिया द्वारा प्रताड़ित रिया चक्रवर्ती को एक छोटे से रोल के लिए ले लीजिये. आपकी फिल्म की आम लोगों में चर्चा होने की पूरी गारंटी. फिल्म की शुरुआत होती है, बड़ी ही खूबसूरत फिल्म लगती है. बर्फीली वादियां, घुमावदार रास्ते, बड़ी लाजवाब सी कार. आधे पौने घंटे तक तो किरदार आते रहते हैं और फिल्म चलती रहती है. जैसे ही फिल्म की असली कहानी सामने आती है तो आपको याद आता है फ्रेडरिक ड्यूरेनमैट का लिखा हुआ 1956 का नॉवेल ‘अ डेंजरस गेम’. इसके बाद फिल्म में आपकी दिलचस्पी खत्म हो जाती है.

लेखक निर्देशक रूमी जाफरी की बहुचर्चित फिल्म चेहरे हाल ही में अमेजॉन प्राइम वीडियो पर रिलीज की गयी. सिनेमा हॉल में इस फिल्म को दर्शक नकार चुके थे, लेकिन वजह फिल्म नहीं फिल्म की एक्ट्रेस रिया चक्रवर्ती थी. फिल्म का 90% भाग एक ही घर में शूट किया गया है. एक एड एजेंसी के सीईओ इमरान हाश्मी, बर्फ़बारी की वजह से एक घर में पनाह लेते हैं जहां 4 रिटायर्ड लोग – एक जज, एक सरकारी वकील, एक और वकील और एक जल्लाद बैठ कर घर आये मेहमान के साथ ‘कोर्ट कोर्ट’ खेलते हैं और मेहमान को उसमें अपराधी बना का उस पर मुक़दमा चलाया जाता है.

एक सुपर कॉफिडेंट या यूं कहें कि ओवर कॉफिडेंट, एडवरटाइजिंग की दुनिया का शख्स इन पुराने वकीलों के चंगुल में फंस जाता है और ऐसी बात सामने आ जाती है कि एड एजेंसी के इस सीईओ को अपनी गलती या अपना गुनाह कबूल करना ही पड़ता है. जज साहब उसे अपराधी घोषित कर देते हैं. पूरा मुकदमा उस घर में लगे सीसीटीवी में कैद हो जाता है और जल्लाद अपनी बारी का इंतज़ार करता है कि कब वो इस अपराधी को फांसी चढ़ा सके. फ्रेडरिक के उपन्यास में अपराधी आत्महत्या कर लेता है, यहाँ इमरान हाश्मी बर्फ पर फिसल कर खाई में गिर जाता है.

दरअसल, इस फिल्म को देखना बहुत भारी पड़ता है. एक समय तो ऐसा लगता है कि बन्दूक निकल के दो तीन कलाकार आपस में एक दूसरे को शूट कर दें तो शायद फिल्म का अंत हो. कहानी उपन्यास में भी कैसे ही रोचक रही होगी ये सोचने का विषय है. एक जज, दो वकील, एक जल्लाद. दोस्ती का कोई बेसिक पैमाना होता है. जज और वकील तो इतने बेतकल्लुफ हैं कि हमप्याला, हमनिवाला होने से साथ, वो बस एक दूसरे को ‘क्यों बे’ से सम्बोधित नहीं करते. एक नौकर है जो खून के इल्जाम में सजा काट चुका है. इन्हीं जज साहब ने उसका फैसला सुनाया था, सरकारी वकील और अपराधी का वकील भी यही थे. जल्लाद उसका कुछ कर नहीं पाया क्योंकि उसे सिर्फ जेल भेजा गया था. एक हाउसकीपर लड़की भी है. जो पेंटिंग भी करती है. मूर्खों जैसी हंसती है जिसे वो निश्छल समझती है. खाली समय में वो इमरान हाशमी को घूरती रहती है.

कहानी का परिवेश काल्पनिक है इसलिए माफ़ कर दिया जाए ये बात समझ से परे है. रूमी स्वयं कई हिट फिल्में लिख चुके हैं लेकिन वो इस बार कैसे चूक गए? उनका साथ दिया है एक और प्रसिद्ध लेखक-निर्देशक रंजीत कपूर ने. दोनों ने मिल कर कथा, पटकथा और संवाद लिखे हैं. पूरी स्क्रिप्ट में ‘कौन ज़्यादा चालू डायलॉग मारेगा या शेर फेंकेगा’ की प्रतियोगिता लगी रहती है.

कहानी को फर्स्ट गियर से सेकंड गियर में आने में 45 मिनट लग जाते हैं. इमरान हाश्मी इस दौरान कमाल काम करते हैं. अमिताभ बच्चन को पूरी फिल्म में पकाने के लिए लिया गया था और वो अपने झुके हुए कन्धों पर फिल्म का सलीब लेकर चलने की गलती फिर कर बैठे हैं. एक जगह वो 7-8 मिनिट तक अकेले ही बोलते रहते हैं और भारत में कोर्ट द्वारा लिए गए फैसलों की शो रील सुनाते हैं. दिलचस्पी सुनाने में थी, सुनने में तो कतई अच्छी नहीं थी. फिल्म के लेखक रंजीत कपूर के छोटे भाई अन्नू कपूर भी फिल्म में हैं. मूलतः पंजाबी अन्नू कपूर को सरदार के रूप में पंजाबी बोलते हुए देखना और सुनना, दिमाग पर हथौड़े मारने जैसा है. रघुवीर यादव एक नए तरीके से बांसुरी बजाते हुए नज़र आते हैं और अपनी प्रतिभा को जाया करते हैं. फिल्म में रिया चक्रवर्ती और सिद्धार्थ कपूर का किरदार हाउस हेल्प की ही तरह था, नहीं होता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता. चार कानूनी पात्रों की दयानतदारी और ईमानदारी का परिचय देने की क्या जरुरत थी.

ऐसा नहीं है कि फिल्म में सब कुछ ही ख़राब है. वरिष्ठ और अवार्ड विनिंग सिनेमेटोग्राफर बिनोद प्रधान के कैमरे का जादू देखना जरूरी है. सर्द वादियां, बर्फ, लकड़ी का बना घर और हर चरित्र के कपड़ों के अलग अलग शेड्स को फ्रेम में देखना बहुत सुखद अनुभव है. बंगाली फिल्मों के सुप्रसिद्ध एडिटर बोधादित्य बनर्जी जिन्होंने अमिताभ बच्चन की कोर्टरूम ड्रामा ‘पिंक’ भी एडिट की थी, उनका काम भी काबिल-ए-तारीफ है. फिल्म के सीन्स ही बोझिल तरीके से लिखे गए हैं इसलिए बोधादित्य भी फिल्म में थ्रिल पैदा करने के लिए संघर्ष करते रहे. एक ही घर में अलग अलग जगह अलग अलग सीन्स शूट किये हैं और उनके बीच तारतम्य बिठाने में उन्होंने काफी मेहनत की है. एक बड़ा सलाम कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा के नाम किया जाना चाहिए. अमिताभ बच्चन, इमरान हाशमी और धृतिमान चटर्जी के साथ अनु कपूर और रघुवीर यादव जैसे मंजे हुए कलाकार एक साथ ला कर बिठाये हैं. सिद्धांत कपूर और रिया चक्रवर्ती संभवतः मित्रता की वजह से जगह पाए हैं.

रूमी जाफरी ने अब तक अधिकांश कॉमेडी या साफ़ सुथरी फिल्में लिखी हैं या निर्देशित की हैं. चेहरे उनके मिज़ाज की फिल्म नहीं है. ये कदम साहसिक था हालांकि बहुत सही नहीं साबित हुआ. फिल्म बोरिंग है क्योंकि डायलॉगबाजी ने फिल्म का कचरा कर दिया है. अमिताभ और इमरान हाश्मी के अभिनय के लिए फिल्म देख सकते हैं.

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